Editorial : उत्तराखंड की त्रासदी, कब जागेगा इंसान?
Editorial: Uttarakhand tragedy, when will humans wake up?

Editorial : एक बार फिर उत्तराखंड कराह उठा है। बारिश की कुछ बूँदें क्या गिरीं, मानो आसमान ने कहर बरसा दिया। नदी-नालों ने अपना रास्ता छोड़ दिया, पहाड़ दरकने लगे, और ज़िंदगियाँ पलभर में मलबे के नीचे दफन हो गईं। इस बार की आपदा सिर्फ एक प्राकृतिक घटना नहीं थी, बल्कि हमारी वर्षों की लापरवाही का परिणाम भी है।
उत्तरकाशी, चमोली, रुद्रप्रयाग जैसे जिलों में हालात भयावह रहे। भूस्खलन ने सड़कें निगल लीं, पुल बह गए, सैकड़ों यात्री फँस गए, और कई परिवारों ने अपने प्रियजनों को खो दिया। चारधाम यात्रा रोकनी पड़ी। हर बार की तरह राहत और बचाव दल सक्रिय हुए, लेकिन क्या यही समाधान है? क्या हम सिर्फ मलबा हटाकर, फिर से वहीं निर्माण कर, अगली आपदा का इंतज़ार करते रहेंगे?
हमें सोचना होगा उत्तराखंड आखिर कब तक यह बोझ उठाता रहेगा? बेतहाशा निर्माण, पर्यावरणीय नियमों की अनदेखी, और पहाड़ों की बेतरतीब कटाई ने इस संवेदनशील क्षेत्र को और भी असुरक्षित बना दिया है। जिस धरती को देवभूमि कहा जाता है, आज वह इंसानी लालच की शिकार हो गई है।
जरूरत सिर्फ तात्कालिक राहत की नहीं है, बल्कि दीर्घकालिक सोच की है। सरकार को चाहिए कि वह वैज्ञानिकों, पर्यावरणविदों और स्थानीय लोगों के साथ मिलकर एक ऐसा विकास मॉडल तैयार करे जो प्रकृति के साथ तालमेल बिठाए। भवन निर्माण से पहले भौगोलिक सर्वे अनिवार्य हो, और पर्यटन को नियंत्रित किया जाए ताकि वह क्षेत्र की सहनशक्ति के अनुरूप हो।
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उत्तराखंड सिर्फ एक राज्य नहीं, बल्कि प्रकृति की गोद में बसा एक अनमोल खज़ाना है। हमें इसकी रक्षा करनी होगी अब नहीं तो कभी नहीं। यह आपदा एक चेतावनी है प्रकृति सब सहती है, लेकिन जब जवाब देती है, तो इंसान संभल नहीं पाता। अगर अब भी हम नहीं चेते, तो अगली त्रासदी और भी भयानक हो सकती है।



