Editorial : युद्ध की आशंका और वैश्विक स्थिरता पर संकट

Editorial: Fear of war and crisis of global stability

Editorial: Fear of war and crisis of global stability
Editorial: Fear of war and crisis of global stability

Editorial : दुनिया इस समय फिर से एक गंभीर संकट के मुहाने पर खड़ी है। अमेरिका और ईरान के बीच बढ़ते तनाव ने वैश्विक समुदाय को चिंता में डाल दिया है। दोनों देशों के बीच कूटनीतिक, सामरिक और वैचारिक मतभेद अब इतने तीव्र हो चुके हैं कि किसी भी क्षण युद्ध की चिंगारी भड़क सकती है। अमेरिका की हालिया सैन्य कार्रवाइयों और ईरान की कड़ी प्रतिक्रियाओं ने मध्य पूर्व को एक बार फिर अस्थिरता की गर्त में धकेल दिया है।

इस टकराव की जड़ें ऐतिहासिक हैं। 1979 की ईरानी इस्लामी क्रांति के बाद से ही अमेरिका और ईरान के रिश्ते तनावपूर्ण बने हुए हैं। अमेरिका को ईरान का कट्टरपंथी शासन और उसका परमाणु कार्यक्रम हमेशा खतरा लगता रहा है। दूसरी ओर, ईरान अमेरिका को क्षेत्रीय दखलंदाज़ी और साम्राज्यवादी शक्ति मानता है।

हालिया घटनाएं इस टकराव को और भयावह बना रही हैं। अमेरिका ने ईरान के खिलाफ आर्थिक प्रतिबंधों को और कड़ा किया है, जबकि ईरान ने अपने परमाणु कार्यक्रम को तेज़ करते हुए यूरेनियम संवर्धन की सीमा को पार कर लिया है। खाड़ी क्षेत्र में अमेरिकी सैन्य जमावड़ा बढ़ा है और ईरान समर्थित मिलिशिया संगठनों की गतिविधियां भी तेज हुई हैं। इन घटनाओं से यह स्पष्ट होता है कि हालात बेहद नाजुक हैं और यदि समय रहते कोई ठोस समाधान नहीं निकाला गया, तो परिणाम एक विनाशकारी युद्ध के रूप में सामने आ सकता है।

यदि अमेरिका और ईरान के बीच युद्ध होता है, तो इसका प्रभाव केवल इन दो देशों तक सीमित नहीं रहेगा। मध्य पूर्व के बाकी देश—जैसे इराक, सीरिया, यमन और लेबनान—जो पहले से ही राजनीतिक और सैन्य अस्थिरता से जूझ रहे हैं, वे इस युद्ध की आग में पूरी तरह झुलस सकते हैं। इसके अतिरिक्त, वैश्विक तेल आपूर्ति पर भी इसका गंभीर असर पड़ेगा, जिससे पेट्रोलियम की कीमतें आसमान छू सकती हैं और पूरी दुनिया में आर्थिक संकट पैदा हो सकता है।

भारत जैसे देश, जो दोनों पक्षों से अच्छे संबंध बनाए हुए हैं, उन्हें इस परिस्थिति में अत्यंत संतुलित और विवेकपूर्ण भूमिका निभानी होगी। भारत का मध्य पूर्व में आर्थिक और रणनीतिक हित है, साथ ही लाखों भारतीय वहां कार्यरत भी हैं। ऐसे में भारत को शांति और संवाद की वकालत करते हुए अंतरराष्ट्रीय मंचों पर एक सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए।

इस संकट को केवल सैन्य ताकत से नहीं टाला जा सकता। इसके लिए कूटनीति, आपसी समझ और शांतिपूर्ण संवाद की आवश्यकता है। संयुक्त राष्ट्र और अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को चाहिए कि वे तुरंत पहल करें और दोनों देशों के बीच वार्ता का मंच तैयार करें। इतिहास गवाह है कि युद्ध से कभी स्थायी समाधान नहीं निकलता, केवल विनाश और पीड़ा ही हाथ लगती है।

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