कृषि कानून 2020: एक विचार

बदलाव की प्रक्रिया में विरोध लाजिमी है। खासकर तब जब ऐसे तंत्र को छेड़ा जाता है, जो कई दशकों से जस की तस बनी हुई हो। किन्तु, लोकतंत्र में कम से कम इस तरह के विरोध देखना कोई नई बात नही है। पर ये गौरतलब है कि स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात किसानों का जन लामबंदी काफी मुखर है। आखिर ऐसा क्यों हुआ?
अगर कृषि कानून सर्वसाधारण हितैषी था तो इसे जिस तरह पहले अध्यादेश फिर संसद से ध्वनिमत से बिना पूर्ण चर्चा कराए पास किया गया, एक संदेह पैदा करता है। सरकार को इस कृषि कानून की व्यवहारिकता को एक   ‘पायलट प्रोजेक्ट’ के माध्यम से नही जांच व परखा। विभिन्न किसान संगठनों से इस बात पर व्यापक उचित विमर्श नही किया गया। अगर मान भी लिया जाय कि उक्त किसी खास संगठन किसी खास विचारधारा के हों, किन्तु जब सभी विचारधारा को अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हिस्सेदार बनाते हैं तो यह एक कारगर कदम साबित होता।
भारत एक लोकतांत्रिक देश है। सरकार को जन भावना का आदर करना चाहिए। एक स्तर पर मान भी लिया जाय कि कृषि कानून छोटे व मंझोले किसानों के हित में लाया गया, परन्तु प्रश्न उठता है कि कितने किसान पढ़े-लिखे हैं? क्या सरकार ने ऐसी कोई एजेंसी का गठन किया है जो इन गरीब किसानों का मार्गदर्शन करें?
कृषि कानून में जो प्रशासनिक अधिकारी की नियुक्ति की व्यवस्था की गई है, क्या गारंटी है कि नौकरशाही शोषण नही होगा। किसानों को जमीन खोने का डर इसलिए है कि वे इस कानून को पढ़े लिखे न होने के अभाव में समझ नही पाएंगे एवं कॉन्ट्रैक्ट के अनुसार धोखा होने की आशंका बनी रहेगी।
नेक इरादा व मंशा रखने के बाद भी कई चीजें ‘तुगलकी फरमान’ बन जाती है, क्योंकि वह व्यवहारिकता से दूर दिखाई देती है। मान भी लिया जाय कि किसानों को फायदा होगा, परन्तु उनलोगों का क्या जो इस कृषि बाजार से जुड़े हैं। क्या सरकार ने उनके लिए कुछ बेहतर सोचा है?
प्रजातंत्र में सबको साथ लेकर चलना पड़ता है।सरकार को कृषि कानून को एक ‘पायलट प्रोजेक्ट’ के रूप में कुछ जिलों में इसकी व्यवहारिकता को जमीन पर साबित कर कृषि कानून को अमली जामा पहनाना चाहिए।

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